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मित्रता का एहसास

श्रीकृष्ण की पवित्र मित्रता का एहसास जब सुदामा को होता है,  ऐसे एक काल्पनिक प्रसंग पर यह कविता आधारित है  मैंने अपना समझा, सम्मान दिया  इसीलिए तो जरूरत पर कुछ माँगा, मैं  बोलता रहा , तारीफ करता रहा,  मित्र दाता बना बस देता रहा  अपनी भावनाये कह डाली सारी , वह तो राजा था, उसने कुछ न कहा  बस शांति व प्रेम से सुनता रहा, अपनत्व से, इज़्ज़त से देता रहा  मेरे होने न होने से उसको क्या , वह तो था, समृद्ध और संपन्न  मैं यह सोच, कभी गया कभी नहीं , खुद ही जो समझा, फैसला किया  जब उसकी सच्चाई जान पड़ी , तो अश्रुधारा बह निकली है, था गहन प्रेम उस देने में  , मांगने का हक़ समाया भी मैं तो कुछ भी बोल आया , वो मेरी परेशांनी छुपाये रहा, किसी से कुछ भी नहीं कहा , मित्रता निभाई कोई एहसान नहीं  वह भी मुझे याद करता था, तकता था नेत्रों से, राह मेरी , राजा था, कुछ कह न सका   पर महसूस ह्रदय में करता रहा  हाय यह क्या सोचा , क्यों ऐसा किया,  सम्पन्नता से मित्रता को क्यों तोला, वह भी इंसान है, भावनातमक है , प्रेम की उचित प्रतिक्रिया थी देनी...